Saturday, May 26, 2018

नेहरू

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है 
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते 
सांस थम जाने से एलान नहीं मर जाते 
धड़कने रुकने से अरमान नहीं मर जाते 
होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते 
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है 
साहिर लुधयानवी ने ये नज़्म उस इंसान के लिए लिखी जो हर दीन और हर मज़हब से दूर था मगर फिर भी हर दीन हर मज़हब का ग़मख्वार था। वो जिसके काँधे पर सारी क़ौमों के गुनाहों का बोझ था लेकिन फिर भी ईसा की तरह सारी उम्र सलीब पर खड़ा रहा। वो इंसान जिसने इंसानो के बंटवारे का ग़म झेला मगर फिर भी इंसानियत पर भरोसा रहा। वो इंसान जिसकी आज के बिलखते चीख़ते हिंदुस्तान को सबसे ज़्यादा ज़रुरत है। आप चाहें तो उससे पंडित जवाहर लाल नेहरू कह कर पुकारें या चाचा नेहरू कहें या सिर्फ गाँधी जी की तरह जवाहर कहें। 
दूसरे विश्व युद्ध के ख़ात्मे के बाद दुनिया का सबसे बड़ा इंसानी Exodus यूरोप में हुआ जहाँ पर नये राष्ट्रवाद की बुनियाद रक्खी गई और बताया गया के प्रजातंत्र की बुनियाद 'एक धर्म एक भाषा और एक देश पर रखी होती है', और इसी लिए यूरोप के अलग अलग देशों में रह रहे फ्रेंच बोलने वाले लोगों को फ्रांस भेजा गया ,जर्मन बोलने वालों को जर्मनी और अंग्रेजी बोलने वालों को इंग्लैंड।
 उस ज़माने के बुद्धजीवियों  का मानना था के The concept of democratic nation is 'One Religion, One Language and One Nation. उनका मानना था के बिला इस सिद्धांत के राष्ट्रवाद (nationalism) की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इसी लेहाज़ से 1945  आते आते जब ये तये हो गया के हिंदुस्तान को आज़ाद किया जायेगा और वो एक जनतंत्र होगा और यहाँ रह रहे सभी नागरिकों को बराबर वोट देने का अधिकार होगा तो उस वक़्त के सभी बुद्धजीवियों  ने इंडियन नैशनल कांग्रेस का मज़ाक बनाना शुरू किआ के जिस मुल्क में 30 से ज़्यादा ज़बाने बोली जाती हों और दसियों धर्म हों वहां जनतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनका मानना था के भारत जैसे विशालकाये देश में पंजाबी, मद्रासी, बंगाली, हिन्दू, मुसलमान, सिख सब एक देश को अपना देश मानने से इंकार कर देंगे। 
1952 में जब पहला चुनाव हुआ तो 85% भारतीय वोटर निरक्षर थे।  पश्चिमी देशों में जब प्रजातंत्र आया था तो वहां के निवासियों को समान रूप से वोट डालने की आज़ादी नहीं थी बल्कि पहले पूंजीपतियों को ये अधिकार दिया गया, उसके बाद ये अधिकार सिर्फ पढ़े लिखे लोगों को मिला फिर सिर्फ मर्दों को ये अधिकार दिए गया।  नेहरू के भारत में ये ये अधिकार सामान रूप से पहली बार में ही सभी को दे दिए गया। स्विट्ज़रलैंड ने महिलाओं को वोट डालने का अधिकार 70 के दशक में दिया और नेहरू ने भारत राष्ट्र का जन्म होते ही महिलाओं, आदिवासियों, निरक्षरों, अल्पसंख्यकों एवं तमाम शोषित समुदायों को बराबर का अधिकार दिया।  

  रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब में लिखा है के आज के राष्टवादी ग्रुप RSS ने भी नेहरू को खरी खोटी सुनाना शुरू की और अपने मुखपत्र The Weekly Organiser में लेख छापा के "पंडित नेहरू अपने जीवन काल में ही भारत के हर नागरिक को सामान रूप से वोट देने के अधिकार पर पछतायेंगे और माफ़ी मांगेंगे "

मगर पंडित नेहरू को विश्वास था के उनका ये प्रयोग जहाँ एक ही मुल्क में कई ज़बाने, कई रीतियां, कई धर्म, कई समुदाय एक साथ रह सकते हैं जिसे हम diversity या विविधता कहते हैं वो फेल नहीं होगा।  ऐसा ही हुआ। नेहरू का हिंदुस्तान अपने अंदर न जाने कितने अलग अलग समुदायों, ज़बानो, धर्मों को समेटे हुए आगे बढ़ता रहा।
आज दुनिया को अगर किसी चीज़ के सीखने की ज़रुरत है तो वो नेहरू का diverse India का formula है, बग़ैर इसके फ्रांस में बुर्का पहनने पर हो रहे शोषण या यूरोप में शरणार्थी समस्यायों या अमरीका में नस्ल भेद पूरी तरह ख़तम नहीं हो सकता है।
 तकलीफ इस बात की है के जिस इंसान का एहसान हमारी नस्लों को मानना चाहिए वो आज कल whatts  app पर फैलाये जा रहे प्रचार का शिकार हो रहे हैं। कमी उनकी नहीं है बल्कि कमी भारत के बुद्धजीवियों, इतिहासकारों और हम जैसे नेहरू वादी सोच रखने वाले लोगों की जो 14 नवंबर और 27 मई को इखट्टा हो कर नेहरू जी की तस्वीर पर माला चढ़ा देते हैं या फेसबुक और ट्विटर पर नेहरू की तस्वीर डाल देते हैं मगर उनकी बात, उनकी विचारधारा  आम लोगों तक पहुंचा नहीं पाते। 
हिंदुस्तान आज जहाँ पर खड़ा है और पाकिस्तान जहाँ से गुज़रा है उसमें बहुत समानताएं हैं , हिंदुस्तान में अब वही कुछ हो रहा है जो पाकिस्तान में हो चूका है और उसके लिए हम और आप भी कम ज़िम्मेदार नहीं है।  हम अपने स्कूल या कॉलेज जाने वाले बहन भाई या बेटे बेटियों को ये समझा ही नहीं पाए के हिन्दुतान ने तरक़्क़ी रूढ़िवादी सोच की वजह से नहीं की बल्कि जवाहर लाल के Scientific Temper की वजह से की है। 1947 से लेकर 1954 के बीच में वैज्ञानिक अनुसन्धान के 29 संस्थानों को खड़ा करने वाला इंसान अकेला नेहरू था। सोचिये ज़रा अगर नेहरू की जगह कोई रूढ़िवादी सोच वाला प्रधान मंत्री बनता जैसा आज है तो IIT, IIM, AIIMS, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेण्टर, स्पेस रिसर्च सेण्टर जैसे संसथान नहीं होते बल्कि हम इसी बात से खुश होते रहते के 'महाभारत' के समय में हमारे पास इंटरनेट था और पहली Plastic सर्जरी गणेश जी की हुई थी।
पंडित नेहरू से जब पुछा गया था की आज़ाद भारत को प्रगतिशील बनाने के रास्ते पर लाने के लिए सबसे ज़्यादा परेशानी किस चीज़ में आई तो उनका जवाब था "रूढ़िवादी सोच को साइंटिफिक टेम्पर में बदलना बहुत मुश्किल था " 
आज पाकिस्तान में और हम में अगर कोई फ़र्क़ है तो वो सिर्फ पंडित जवाहर लाल नेहरू हैं। नेहरु भारत को ना मिले होते तो हम कब का पाकिस्तान की तरह धर्म और रूढ़िवादी ज़ंजीरों में क़ैद हो गए होते ।

नेल्सन मंडेला  ने अपने मशहूर सितम्बर 1953 की स्पीच में नेहरू को ही quote किया के "There is no easy walk to freedom anywhere" और अपनी आत्म कथा में भी अपना आदर्श  जवाहर लाल को ही बताया मगर आज हम उनका चरित्र आकस्मिकता (character assasination) अपनी आँखों के सामने होते देख रहे हैं।  RSS को तो उनसे चिढ ही इसी बात की है के उनका कोई भी नेता विश्व क्या भारत में भी नेहरू की परछाई के आस पास भी नहीं आ सका। RSS का 1947 का मंसूबा के पाकिस्तान बन गया है अब हिंदुस्तान को हिंदुत्व देश बनने से कोई नहीं रोक सकता, उसको नेहरू ने चकना चूर कर दिया, RSS को वो खुन्नस आज तक है और हमेशा रहेगी। 
अगर आप और हम नहीं चाहते के हिंदुस्तान अगला हिन्दू पाकिस्तान बने तो नेहरुवियन विविधता की विचारधारा को लोगों तक पहुँचाने का ज़िम्मा हमको खुद उठाना पड़ेगा वार्ना ऐसे ही संघोष्ठियाँ होती रहेंगी, और हमारा खूबसूरत हिंदुस्तान रूढ़िवादी सोच के नीचे रेज़ा रेज़ा हो जायेगा।
इसीलिए ...
उसके फरमानो की, एलानो की ताज़ीम करो
राख तक़सीम की, अरमान भी तक़सीम करो 
दामन ए वक़्त पे भी खून की छींटें न पड़ें 
एक मरकज़ की तरफ देर ओ हरम ले के चलो
वो जो हमराज़ रहा हाज़िर ओ मुस्तक़बिल का
उसके ख्वाबों की ख़ुशी रूह का ग़म ले के चलो
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है। 

Friday, November 11, 2016

Demonetisation : A political Gimmick.

In 1997, just after few years of liberalisation of the economy, P Chidambaram initiated a scheme which was called VDIS (Voluntary Disclosure of Income Scheme) which collected 78 billion Indian rupees without hassle to the common man. These were un accounted money or which you call 'black money'. Now adjust that amount with inflation.
Ab aate hain Tughlaq Shahi farmaan par. GDP ka 12% parallel economy ka hissa hai. Agar economist ki maane to ismein 1% cash hai baaqi land, gems, hawala, swiss, stocks, property waghera waghera!
To print 1 new note, it costs around Rs 3 per note. 21 billion new notes are to be printed jiska 20% market mein rahega. That means for printing 2000 notes Indian exchequer will require 20,000 Crores. 500 waala to chhodh hi deejiye.
Hisaab kitaab laga kar pata chalta hai this demonetisation was more of a gimmick and political stunt than actual war against black money.
In 1979 Janta Goverment thought for this master stroke to push Congress Party on cash crunch before elections. 1980 Elections saw Congress winning 351 seats. So, this fake surgical strike will give no fruits to BJP.
Lamba chouda is lie likha hai kyunki aap ATM ki line mein khade hain aur apne ko border par khade sainik ki tarah samajh rahe hain to kaafi time hoga aapke paas.... kyunki line kaafi lambi hai. पढ़ते जाइए बढ़ते जाइए 😜

Thursday, March 3, 2016

Aligarh

Read an article by @lamatayub where she mentioned her grievances, stereotypes and the hypocrisies prevalent inside AMU campus in general and Women’s College in particular.

Though I agree with many of her concerns and as an AMU alumni she has all the right to criticize her institution. I only want her to analyze the complex role AMU is playing as an institution which is paramount to the education of the minorities in India specially Muslims and then come to a conclusion.

To rationalize our views, we must go into AMU’s pre independence history.
AMU was giving modern education and etiquette to its fellow students who were mainly from feudal lord families. Riding Club, Debate societies, Bearers & Dining Halls are some of the leftovers of its elitist and modern approach.

What happened afterwards? How AMU got trapped in a conservative cocoon?

My understanding is this:
AMU after being recognized as a Central University opened its gates to weaker, poorer strata of Muslims who are traditional to its approach, especially when it comes to girl’s education. Now, think of a middle class Muslim family in Kishangunj district of Bihar or a family from remote Rae Bareli district of Uttar Pradesh. They will never let their daughters to go and study in Delhi and live in DU Hostel.

I am not justifying their fear but the reality is that they ‘fear’. They fear adulteration in their ethos, culture and religion. In AMU they see a safety net. They know Girls are treated there as they treat them at home. No late outings, No western wears, No Boyfriends, more religious, in a nut shell more orthodox.

Now, when higher education in Muslim women is so poor, do you want AMU’s effort gets a setback because of these pretenses?

We will have to make our priority list first.
1. Education
 2. Liberal and modern

I think, I will stick to education first. Change in society is inevitable and AMU or any University campus will not be far behind. Eventually, liberal thoughts will take over the orthodox, but we have to take a very cautious approach. In being liberal and contemporary, we can’t afford to lose on girls from remote districts and towns of India whose higher education gets snapped just because they don’t have a girl’s college in their districts and they can’t be sent to some other cities to live in a hostel on their own.

Perhaps that’s the reason why Asrarul Haq Majaz wrote in Nazr-e-Aligarh that
              “har aan yahan sehba-e-kuhan, ek saaghar-e-nau mein dhalti hai”
                                        Here old Wine gets new goblet.

Hence, AMU is trying to do a balancing act and therefore it’s important that AMU gets its minority character because AMU is more than just a University. It’s a bridge between orthodox and liberal modern Muslim society.

Sunday, June 22, 2014

FIFA wants intresting Football; approches Rajiv Shukla for suggestions.


After hearing  that 1/4th of the world population (India) snores in the second half of every #WorldCup match or are switching to Suryavansham on SetMax, FIFA has decided to make Football more interesting and subcontinent friendly. So they approached Rajiv Shukla for suggestions and recommendations to popularize football in the Indian sub-continent. Following are Shukla Ji's suggestions.

  • Only 2 defenders should be allowed inside the D for the first 15 minutes. Max 4 for the rest of the game, be it a free kick or a corner kick.
  • Each team can have 5 minutes of ‘super time’ where opposition will have to remove the Goalkeeper from the goal post.
  • Every ‘Host’ country should have the liberty to choose the playing conditions on the field as per there convenience, they can remove the 'grass' totally from the football pitch or can have knee length grass. Whichever way they like to play.
  • Not even a slightest resentment is allowed on the Referees decision,  if a player gets a Yellow or Red card, he has to smile and say “Thank you”
  • Two referral’s allowed against the Referee’s decision, if the Captain wins the decision then on-field Referee has to apologies. The signal for apology would be holding his ears and doing 2 sit-ups.
  • If the team’s Center Forward is injured, he can ask for a runner. The runner will do the running, dribbling whereas center forward can rest near oppositions Goalpost only to take the kick. No offside rule for him.
  • Substitutes are not allowed to strike; they can only run or pass the ball.
  • Exchanging of t-shirts after the game should be called ‘Dada Act’, players have to swing there t-shirt over there head for 10 secs before handing it over to the opposition players.
  • I (Rajiv Shukla) and Srinivasan Jain should be accommodated in FIFA governing body; even the entry level is ok for us. (we know how to rise)
  • Pakistan or Pakistani players should not be allowed at any time to play this sport.

Sunday, July 29, 2012

Yes I am Communal !!!

Few days back I read a news report on a Pakistan's News website that a TV journalist in Pakistan called Maya had a unique show on TV in this holy month of Ramadhan where she converted a Hindu Pakistani boy to Islam and the show increased its TRP manifolds. She even invited viewers for calls to give this boy his new pious Islamic name. I know you will say "koi zabardasti to nahin karwaii gai thi... Allah ne use taufeeq di siraat-ul-mustaqeem par chalne ki" agreed my friend.
          Instantly my thoughts came on Muslims in India and thought of a similar show on Indian TV where a Muslim boy willingly converts to Hinduism. Even the idea of such a show sent shivers in my spine and i sweat.  The resultant purification would have engulfed the entire country in a raging fire; however, the minimal reaction this episode has received from my fellow Muslim scholors, writers, thinkers and most importantly the crusaders of “just” who who are up against any communal sufferings, be it banning of burqa’s in France, or Burmese atrocities, or Assam riots just proves that we are also communal and I include MYSELF also in this list. 
          We Facebook columinst should be ashamed to read such a hideous mockery of the two religions. My Muslim friends and most importantly my Aligarian friends, why am I having a serious doubt within that we ourselves are not less communal than those we cry for? Why I don’t go through any article or FB status from an Aligarian or a Muslim who have the courage to stand up and say that Yes we are ashamed, Why only Maya from Pakistan in particular? I am sure many of us believe that the ongoing drama about the Akbarabadi Mosque is blown out of proportion, why can’t we protest and write against a Muslim MLA in Delhi, who is trying to derail a Metro Project connecting Old Delhi and wants Akbarabadi Masjid there.
         Dear Mr MLA, stop it…. अल्लाह के वास्ते बंद करो ये ड्रामा …बहुत हुआ . We have ample of Mosques in Delhi which gives a deserted look and are void of Namazi;s there.
      मस्जिद तो बना ली शब् भर में , इमान की हरारत वालून ने
     
मनन अपना पुराना पापी है , सदियों में नमाज़ी बन  सका 
Dear Aligarian’s and Muslim friends, I may be wrong in my approach but this is what I was undergoing for the last many days and I tried to vent it out through this writeup.
Yours
Fahad

Sunday, June 3, 2012

Kehte hain aadatein hamesha saath rehti hain
Vo tab bhi thin jub abba ko khaanste dekha tha
Aur tab bhi jub unpar pehli mitti daalne kisi ne mere kaandhe par haath rakha tha
Kehte hain aadatein hamesha saath rehti hain
Us adat ki khushboo ko ammi ne mere kapdon mein sungha tha
Meri biwi ne honthon se soongh kar jhagda kia tha
Usi aadat ka haath pakad kar bahut door nikal aaya
Door itna ki vapas mud kar dekhun to sab kuch dhundla sa dikhta hai
Vapas jaana namumkin sa lagta hai
Badan mein mere jo zeher ris raha hai vo usi aadat ka hai
Mujhe kamzoor karta hai
Mujhe beemar karta hai

Aaj vo aadat chhod di maine
Aaj Uska haath chhuda kar vapas bhaag nikla hun
Kaun kehta hai aadaten saath rehti hain

 Ab main cigarette nahin peeta.

Thursday, April 2, 2009

Raat dard hai
Dava nahin
Jis chout ko
Chua nahin
Vo chout sirhane rakh kar let gaya hoon
Sooraj khidki se phoot raha hai
Aankh jaagi hai
Soee nahin

Neend ke tukde been raha hoon